“जब दुनिया फिर से हथियारों की राह पर — भारत का अगला कदम क्या?”

“भारत का संयम या रणनीतिक संकट? जब दुनिया फिर से हथियार उठा रही है…”
(Is India’s Nuclear Restraint Still Strength or Strategic Strain?)


साल था 1974। राजस्थान की तपती रेत में पोखरण के नीचे भारत ने वह किया, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
कोडनेम था — ‘Smiling Buddha’
भारत ने कहा, “यह परीक्षण शांति के लिए है।” लेकिन दुनिया समझ गई — भारत अब परमाणु युग में प्रवेश कर चुका है।

यह भारत की वैज्ञानिक स्वायत्तता की शुरुआत थी,
पर साथ ही वैश्विक संदेहों और प्रतिबंधों का दौर भी।


24 साल बाद, वही पोखरण फिर गवाह बना इतिहास का —
‘ऑपरेशन शक्ति’ के तहत पाँच परमाणु परीक्षण।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने घोषणा की —

“India is now a nuclear weapon state.”

इस एक वाक्य ने न केवल भारत की सामरिक सोच को बदल दिया,
बल्कि उसकी अंतरराष्ट्रीय पहचान भी गढ़ दी।

फिर भारत ने तुरंत कहा —
👉 हम किसी देश पर पहले हमला नहीं करेंगे (No First Use),
👉 और अब हम और परीक्षण नहीं करेंगे (Voluntary Moratorium)।

यानी भारत ने शक्ति भी दिखाई, और संयम भी।
यही संतुलन बना भारत की परमाणु नीति का नैतिक आधार


कभी शीतयुद्ध के बाद दुनिया ने राहत की साँस ली थी —
अमेरिका और रूस ने हथियार घटाए,
नई संधियाँ हुईं,
और “परमाणु संयम” (Nuclear Restraint) एक नया वैश्विक आदर्श बन गया।

लेकिन अब, तीन दशक बाद, वही व्यवस्था हिलने लगी है।
“संयम युग” की जगह फिर से हथियारों की दौड़ (Arms Race) का साया मंडरा रहा है।


रूस के Novaya Zemlya परीक्षण स्थल —
जहाँ कभी सोवियत काल में सैकड़ों परमाणु परीक्षण हुए थे —
वहाँ अब दोबारा हलचल बढ़ रही है।

ताज़ा सैटेलाइट इमेजेज़ से साफ दिख रहा है कि रूस ने इस क्षेत्र में नई सुरंगें, कमांड सेंटर और बुनियादी ढाँचे का निर्माण तेज कर दिया है।
रूसी रक्षा अधिकारियों का बयान भी साफ है —

“यदि आदेश मिले, तो परीक्षण किसी भी समय शुरू किए जा सकते हैं।”

यह केवल तकनीकी तैयारी नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेत है —
रूस यह दिखाना चाहता है कि वह अमेरिका और नाटो की परमाणु नीतियों के सामने झुकने वाला नहीं है।

इसके साथ ही रूस अपने नए परमाणु-संचालित क्रूज़ मिसाइल “Burevestnik” की दिशा में भी सक्रिय है —
जो पारंपरिक मिसाइलों से कहीं अधिक दूरी और टिकाऊ शक्ति का दावा करती है।
यानी रूस अब संघर्ष रोकने के बजाय शक्ति दिखाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है।


उधर चीन भी चुप नहीं बैठा।
सिनजियांग के Lop Nur क्षेत्र — जहाँ 1960 के दशक से परमाणु परीक्षण होते रहे —
वहाँ फिर से निर्माण और विस्तार देखा जा रहा है।

रिपोर्टों के अनुसार, चीन ने
👉 लगभग 250 नए इंटरकॉन्टिनेंटल मिसाइल साइलो (ICBM Silos) तैयार किए हैं,
👉 और नए हथियार डिज़ाइन और परीक्षण इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित कर रहा है।

पश्चिमी एजेंसियों का मानना है कि चीन अब “ट्राईड-कैपेबल फोर्स” की दिशा में आगे बढ़ रहा है —
यानि परमाणु हमला ज़मीन, समुद्र और हवा — तीनों माध्यमों से संभव हो सकेगा।

यह सब एक ही संदेश देता है —

“चीन अब छिपकर नहीं, खुलेआम अपनी परमाणु शक्ति दिखा रहा है।”

और इसका सीधा प्रभाव भारत पर पड़ता है, क्योंकि भारत की Credible Minimum Deterrence की विश्वसनीयता का संतुलन अब इसी पड़ोसी के कदमों से प्रभावित होगा।


तीसरी बड़ी हलचल आई अमेरिका से।
अक्टूबर 2025 में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने संकेत दिया कि
अमेरिका “33 साल बाद परमाणु परीक्षण फिर से शुरू करने पर विचार कर रहा है।”

हालाँकि बाद में अमेरिकी ऊर्जा मंत्री ने यह स्पष्ट किया कि ये “विस्फोटक परीक्षण नहीं” होंगे,
बल्कि सिमुलेशन और सबक्रिटिकल टेस्टिंग को नई तकनीक से सत्यापित करने के प्रयास होंगे।

फिर भी यह बयान इतना भर दिखाने के लिए काफी था कि —

“अब अमेरिका भी सिमुलेशन पर पूर्ण भरोसा नहीं करता।”

इस बदलाव का अर्थ यही है कि वैश्विक “नो-टेस्ट नॉर्म” (No-Test Norm) —
जो 1990 के दशक से अंतरराष्ट्रीय स्थिरता का आधार था —
अब कमज़ोर हो रहा है।


अब सवाल भारत के सामने है —
क्या 1998 का संयम आज भी रणनीतिक ताकत है, या अब यह रणनीतिक बंधन बन गया है?

1998 में पोखरण-II के बाद भारत ने दो बातें तय की थीं:
1️⃣ हम अब आगे परीक्षण नहीं करेंगे (Voluntary Moratorium)
2️⃣ हम पहले हमला नहीं करेंगे (No First Use)

इस संयम ने भारत को विश्व मंच पर “जिम्मेदार परमाणु शक्ति” की पहचान दी —
लेकिन जब आज रूस, चीन और अमेरिका जैसे देश “संयम से आगे” जा रहे हैं,
तो भारत के लिए यह सवाल टालना मुश्किल हो गया है कि —
क्या 25 साल पुरानी तकनीक आज भी “विश्वसनीय प्रतिरोध” (Credible Deterrence) दे सकती है?

दूसरे शब्दों में —

“दुनिया एक बार फिर हथियारों की दौड़ के किनारे खड़ी है।”

और इसी बीच, भारत अपने 1998 के बाद से चले आ रहे संयम को देख रहा है —
क्या वह अब रणनीतिक ताकत है या रणनीतिक बंधन?


भारत ने 25 साल से कोई परीक्षण नहीं किया।
इस दौरान तकनीक बदली —
मिसाइलें लंबी दूरी की हो गईं,
वॉरहेड छोटे और सटीक हो गए,
और अब MIRV (Multiple Independent Reentry Vehicle) सिस्टम की तैयारी चल रही है।

पर सवाल ये है —
👉 क्या 1998 की तकनीक आज के समय में पर्याप्त है?
👉 क्या बिना नए परीक्षणों के हम “विश्वसनीय प्रतिरोध” (Credible Deterrence) बनाए रख सकते हैं?

क्योंकि विश्वसनीयता सिर्फ घोषणा से नहीं आती —
वह डेटा, सत्यापन और प्रयोग से आती है।


अगर भारत फिर से परीक्षण करता है, तो…
🌐 राजनयिक विरोध,
💸 संभावित आर्थिक प्रतिबंध,
🌳 पर्यावरणीय खतरे,
और 🔥 क्षेत्रीय अस्थिरता सामने खड़ी होंगी।

भारत की वह छवि — “जिम्मेदार परमाणु शक्ति”
जो उसने दो दशकों में कमाई है,
वह खतरे में पड़ सकती है।

तो क्या भारत वही गलती करेगा जो बड़ी शक्तियाँ कर रही हैं?
या वह संयम को शक्ति में बदलने का नया रास्ता दिखाएगा?


भारत को शायद परीक्षण की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए,
पर उसे तैयारी की गति जरूर बढ़ानी चाहिए

  • अपने वैज्ञानिक सिमुलेशन और सबक्रिटिकल टेस्ट को अपग्रेड करना होगा।
  • नई सामग्रियों और प्रणालियों का non-explosive validation होना चाहिए।
  • और सबसे जरूरी — एक उच्चस्तरीय सामरिक समीक्षा आयोग बने,
    जो यह तय करे कि “भारत की deterrence कितनी विश्वसनीय है।”

भारत की शक्ति सिर्फ मिसाइलों से नहीं, बल्कि नैतिक नेतृत्व से भी आती है।
जहाँ दुनिया प्रतिस्पर्धा में उलझी है, भारत “जिम्मेदारी के साथ शक्ति” की मिसाल पेश कर सकता है।

संयम त्याग नहीं है —
यह वह संतुलित जागरूकता है जो किसी देश को “परमाणु राष्ट्र” से “रणनीतिक राष्ट्र” बनाती है।


भारत ने 1998 में दुनिया को बताया था कि “हम कर सकते हैं।”
अब 2025 में भारत को यह दिखाना होगा कि —
“हम कब, कैसे और क्यों करते हैं — इसका निर्णय भी हमारा है।”

यही है Strategic Autonomy की असली परिभाषा —
न तो भय से निर्णय,
न तो दबाव में संयम —
बल्कि राष्ट्रहित में विवेकपूर्ण संतुलन।
🇮🇳