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संपादकीय

गलत धारणाः एक साथ चुनाव कराने का मसला

20.09.24 80 Source: The Hindu (20 September, 2024)
गलत धारणाः एक साथ चुनाव कराने का मसला

विभिन्न राजनीतिक दलों और नागरिक समाज के कई लोगों द्वारा एक साथ चुनाव कराने के विचार का विरोध किए जाने के बावजूद, केंद्र सरकार ने इस योजना को आगे बढ़ाने संबंधी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता वाली एक उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों को स्वीकार करने का फैसला किया है। समिति ने पहले कदम के रूप में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने और उसके बाद आम चुनाव के 100 दिनों के भीतर नगरपालिका और पंचायत चुनाव कराये जाने की परिकल्पना की है। ऐसा करने के लिए, सरकार को संसद और राज्य विधानसभाओं से संवैधानिक संशोधन पारित कराने की जरूरत होगी। इस प्रस्ताव के लिए दो प्रमुख कारण गिनाए गए हैं- पहला, इन चुनावों को एक साथ कराने पर इसकी लागत काफी कम हो जाएगी और दूसरे, एक साथ चुनाव नहीं होने से राजनीतिक दलों को लंबे समय तक चुनाव प्रचार के मोड में रहना पड़ता है, जिससे शासन और विधायी कार्य प्रभावित होते हैं। पहले कारण के समर्थन में बहुत कम या कोई अनुभवजन्य आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। पहले ही, आम चुनावों में काफी ज्यादा लंबा समय लगता है और कुछ राज्यों में चुनाव कई चरणों में होते हैं। एक साथ चुनाव होने से यह प्रक्रिया काफी लंबी हो सकती है। समिति की सिफारिशों में से एक यह भी है कि अगर किसी राज्य की विधानसभा अपने पांच साल के कार्यकाल से पहले भंग हो जाती है, तो "नियत तिथि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के एक ही समय में होने की तारीख - के बाद नए "मध्यावधि चुनाव तो होंगे लेकिन नई विधानसभा का कार्यकाल पूरे पांच साल का नहीं होगा। इसका कार्यकाल "नियत तिथि से पांच वर्ष बाद समाप्त होगा। यह प्रावधान एक साथ चुनावों के जरिए लागत में कटौती के मूल विचार के खिलाफ है। यह एक संघीय स्वरुप का विरोधी विचार भी है।

एक बहु-स्तरीय शासन प्रणाली में, लोग अपनी इस धारणा के आधार पर अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं कि कौन सबसे उपयुक्त है। सरकार के विभिन्न स्तरों के लिए सीमांकित की गई शक्ति प्रत्येक प्रतिनिधि के लिए अलग-अलग भूमिका का निर्धारण करती है और मतदाताओं को विभिन्न विकल्प सुझाती है जो पार्टी से जुड़ाव, उम्मीदवार की ताकत, वैचारिक रुझान या निर्वाचन क्षेत्र-विशेष के सामाजिक-आर्थिक कारणों पर आधारित हो सकते हैं। प्रत्येक स्तर और उससे जुड़े चुनाव का अपना एक खास महत्व है। जनप्रतिनिधि के बारहों महीने प्रचार अभियान के मोड में रहने और इसलिए, हर स्तर पर चुनाव एक ही अवधि के दौरान कराने संबंधी दूसरे तर्क में कई समस्याएं हैं। पहला, पार्टियों के राष्ट्रीय प्रतिनिधियों का हमेशा प्रचार अभियान मोड में रहना उन पार्टियों के केंद्रीकरण की प्रवृत्ति का नतीजा है जो आज सत्ता में हैं और यह मौजूदा चुनावी लोकतांत्रिक प्रणाली का प्रतिबिंव नहीं है। दूसरा, बहु-स्तरीय चुनावों को एक साथ कराने से प्रत्येक स्तर, विशेष रूप से विधानसभा और नगरपालिका/पंचायत स्तरों का महत्व कम हो जाने की आशंका है और यह संघीय स्वरुप का विरोधी है। अंत में, इस प्रस्ताव को अमल में लाने के लिए कई राज्य सरकारों के कार्यकाल में कटौती करनी होगी। संघवाद के प्रति प्रतिबद्ध पार्टियों और नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं को केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से खारिज करना चाहिए।

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