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संपादकीय

विभाजित फैसलाः एनसीपी के दो गुटों के बीच प्रतिद्वंद्विता

05.10.24 16 Source: The Hindu (4 October, 2024)
विभाजित फैसलाः एनसीपी के दो गुटों के बीच प्रतिद्वंद्विता

महाराष्ट्र विधानसभा के आने वाले चुनाव से पहले, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के दो गुटों, जो अब अलग-अलग पार्टियों के रूप में काम कर रही है, के बीच प्रतिद्वंद्विता का राजनीतिक घटनाक्रमों और चुनावी नतीजों पर अपरिहार्य रूप से असर पड़ेगा। इस टकराव से जुड़े ताजा घटनाक्रम में, एनसीपी के संस्थापक शरद पवार ने विधानसभा चुनावों में एक नया चुनाव-चिन्ह चुनने के लिए अजीत पवार की अगुवाई वाली एनसीपी को निर्देश देने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। फरवरी में अजीत पवार गुट को आधिकारिक एनसीपी के रूप में मान्यता देने के भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) के एक फैसले के बाद, एनसीपी का 'घड़ी' चुनाव चिन्ह इसी गुट के पास है। अजित पवार गुट से अब 'घड़ी' चुनाव चिन्ह छोड़ देने की इस मांग के पीछे कुछ तर्क हैं। ईसीआई के आदेश को पहले ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है। शुरुआती सुनवाई में की गई मौखिक टिप्पणियों से यह संकेत मिलता है कि अजीत पवार गुट को एनसीपी के रूप में मान्यता देने और इस गुट को 'घड़ी' चुनाव चिन्ह आवंटित करते समय ईसीआई द्वारा अपनाए गए 'विधायी बहुमत' संबंधी परीक्षण को लेकर कुछ संदेह हैं। ईसीआई के आदेश ने विधायी बहुमत संबंधी परीक्षण के इस्तेमाल को यह कहते हुए उचित ठहराया था कि पार्टी के 'लक्ष्यों और उद्देश्यों' पर आधारित परीक्षण की तरह ही संगठनात्मक बहुमत किस गुट के पास है संबंधी परीक्षण अनिर्णायक था। अजीत पवार ने अपने चाचा के खिलाफ बगावत किया और भाजपा-शिवसेना गठबंधन में शामिल हो गए व सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन का हिस्सा बन गए, जबकि एनसीपी (शरद पवार) महा विकास अघाड़ी, वह विपक्षी गठबंधन जिसमें शिवसेना (यूबीटी) और कांग्रेस शामिल है, का हिस्सा है।

हालांकि लोकसभा चुनावों में अजीत पवार गुट जहां सिर्फ एक सीट ही जीत पाया, वहीं शरद पवार की पार्टी ने 'तुरहा बजाता हुआ आदमी' के चुनाव चिन्ह का इस्तेमाल करते हुए भारी तादाद में मत हासिल करने के अलावा आठ सीटें जीतीं। इस नतीजे से यह सवाल उठता है कि क्या किसी निश्चित अवधि के दौरान विधायी बहुमत का इस्तेमाल मान्यता हासिल करने या खोने के लिए किया जा सकता है। इसके अलावा, शरद पवार ने तर्क दिया है कि 'घड़ी' कई सालों से राकांपा का आरक्षित चुनाव चिन्ह रहा है और इसे एक गुट को आवंटित करने से मतदाताओं के मन में भ्रम पैदा हो सकता है। अदालत को यह तय करना होगा कि दोनों पक्षों को 'घड़ी' चुनाव चिन्ह से वंचित करके बराबर का मौका दिया जाए या जब तक ईसीआई का आदेश लागू है तब तक मान्यता प्राप्त गुट को उक्त चुनाव- चिन्ह का इस्तेमाल करने दिया जाए। इस किस्म के विवाद, जिनमें महाराष्ट्र में शिवसेना का प्रतिनिधित्व करने को लेकर दूसरा बड़ा विवाद भी शामिल है, दल-बदल और बगावत के जरिए पार्टियों को विभाजित करने के प्रयासों के बरक्स संगठनात्मक एकता बनाए रखने की उनकी क्षमता के लिए चुनौती पैदा करते हैं। ऐसे विवाद में शामिल व्यक्तियों और पार्टियों की किस्मत अक्सर दल-बदल विरोधी कानून के तहत विधानसभाध्यक्ष और पार्टियों को मान्यता देने व चुनाव चिन्ह आवंटित करने वाले ईसीआई पर निर्भर करता है। ऐसा जान पड़ता है कि इन दोनों संस्थाओं को ईमानदार बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट के चाबुक की जरूरत है।

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