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यह निराशाजनक है कि भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस, जो आईपीसी की जगह लेने के लिए प्रस्तावित आपराधिक कानून है) का परीक्षण करने वाली संसदीय समिति ने सजा-ए-मौत के खात्मे की सिफारिश नहीं की है। इसके बजाय, गृह मामलों की स्थायी समिति ने, खात्मे पर विशेषज्ञों और न्यायविदों की ओर से अपनी राय दिये जाने के बावजूद, यह नीरस किस्म की सिफारिश करने का फैसला किया ‘कि मामले को सरकार के विचारार्थ छोड़ा जा सकता है’। उसकी राय इस टिप्पणी तक सीमित है कि समिति को ‘समझ में आया है कि सजा-ए-मौत के खिलाफ जज्बाती दलील की वजह यह है कि न्याय प्रणाली से चूक हो सकती है और एक बेगुनाह व्यक्ति को गलत ढंग से मौत की सजा दिये जाने से बचाया जाना चाहिए।’ हालांकि, इस क्षेत्र के विशेषज्ञों ने पैनल के समक्ष कुछ ऐसी बातें रखी थीं जो कायल करने वाली थीं : निचली अदालतों द्वारा मौत की सजा सुनाये जाने के मामले बढ़ रहे हैं, जबकि सांख्यिकीय रुझान दिखाते हैं कि भारत का सुप्रीम कोर्ट मृत्युदंड देने से दूरी बरत रहा है; इसके अलावा, समाज विज्ञानियों ने दिखाया है कि इसका कोई भयावरोधक प्रभाव नहीं है और वैश्विक राय इसके खात्मे के पक्ष में है। शीर्ष अदालत ने 2007 से लेकर 2022 तक केवल सात लोगों सजा-ए-मौत सुनायी, जबकि मौत की सभी सजाओं को 2023 में या तो पलट दिया गया या फिर उन्हें उम्रकैद में बदल दिया गया, क्योंकि उन्हें ‘विरल में विरलतम मामले’ नहीं माना गया।
जिन सदस्यों ने रिपोर्ट में अपनी असहमतिपूर्ण टिप्पणी दर्ज की उन्होंने इस दलील का विशेष उल्लेख किया कि मृत्युदंड के भयावरोध नहीं होने की बात दिखायी जा चुकी है; इसके अलावा, सजायाफ्ता व्यक्ति की बाकी बची पूरी जिंदगी के लिए जेल ज्यादा कड़ी सजा होगी और यह सुधार का मौका भी प्रदान करेगी; और यह कि मौत की सजा पाने वाले ज्यादातर लोग कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं। उन्होंने यह भी पाया कि आपराधिक कानून के नये ढांचे का प्रस्ताव करने वाले तीनों विधेयक वस्तुत: ठीक वैसे ही हैं जैसे कि मौजूदा आईपीसी, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और साक्ष्य अधिनियम हैं। अगर संसद, संसदीय समिति द्वारा सुझाये गये बदलावों के साथ, मसौदा विधेयकों को कानून में बदलने के लिए आगे बढ़ती है, तो यह सर्वथा उचित होगा कि इस मौके का इस्तेमाल मौत की सजा बरकरार रखने की जरूरत पर पुनर्विचार के लिए किया जाए। बीएनएस में ‘उम्रकैद’ शब्द को किसी व्यक्ति की बाकी बची पूरी जिंदगी के लिए जेल के रूप में परिभाषित किया गया है, और इसे सजा-ए-मौत का स्वाभाविक विकल्प होना चाहिए। अगर उम्रकैदियों की, राजनीतिक आधार पर, समय-से-पहले रिहाई का चलन रोका जाता है और बिना माफी के ताउम्र सजा ज्यादा आम हो जाती है, तो सजा-ए-मौत खत्म करने के मामले को मजबूती मिलेगी। सजा माफी एक मानवीय कृत्य होना चाहिए और इसे राजनीतिक विवाद का कारण कतई नहीं होना चाहिए। कानून की किताब से मृत्युदंड को हटाना और एक तार्किक व सार्वभौमिक सजा माफी नीति लाना, न्याय प्रणाली में एक बड़ा सुधार होगा।
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