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संपादकीय

राजकोषीय संघवादः खनिजों पर कर लगाने का अधिकार

29.07.24 277 Source: The Hindu (July 27, 2024)
राजकोषीय संघवादः खनिजों पर कर लगाने का अधिकार

ऐसा कम ही होता है कि न्यायिक विमर्श में राजकोषीय संघवाद को प्रमुख स्थान मिले। सुप्रीम कोर्ट ने 8:1 के जबरदस्त बहुमत से निर्णय दिया है कि राज्य खनिज अधिकारों और खनिज-गर्भा भूमि पर कर लगा सकते हैं। यह वाकई ऐतिहासिक फैसला है, क्योंकि यह राज्यों के विधायी अधिकार-क्षेत्र को संसद की दखलअंदाजी से बचाता है। दशकों से, यह माना जाता था कि केंद्रीय कानून, खान एवं खनिज (विकास व विनियमन) अधिनियम 1957, की प्रधानता के कारण राज्य अपनी जमीन से निकाले गये खनिज संसाधनों पर कोई कर लगाने की शक्ति से रहित हैं। हालांकि राज्यों को खनिज अधिकारों पर कर लगाने का अधिकार सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में प्रविष्टि संख्या 50 के जरिए दिया गया है, लेकिन इसे “संसद द्वारा खनिज विकास संबंधी कानून के मार्फत लगायी गयी सीमाओं के अधीन” बना दिया गया। केंद्र सरकार की दलील थी कि 1957 के उसके कानून की मौजूदगी मात्र से खनिज अधिकारों पर कर लगाने की राज्यों की शक्ति सीमित हो जाती है, लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड ने पीठ के लिए अपना फैसला लिखते हुए, उपरोक्त अधिनियम के प्रावधानों को जांचा और इस नतीजे पर पहुंचे कि इसमें ऐसी कोई सीमा मौजूद नहीं है। वर्ष 1957 के अधिनियम द्वारा प्रस्तावित रॉयल्टी को कतई कर नहीं माना गया। केंद्र उम्मीद कर रहा था कि एक बार रॉयल्टी को बतौर कर स्वीकार कर लिये जाने पर, उसका इस मामले में एकाधिकार होगा और इस तरह राज्यों के लिए खनिज अधिकारों पर कर लगाने की गुंजाइश खत्म हो जायेगी। हालांकि, अदालत ने रॉयल्टी को खनिज अधिकारों के उपभोग के लिए संविदात्मक भुगतान (कांट्रैक्चुअल कंसीडरेशन) के बतौर देखना पसंद किया। उसने यह भी फैसला दिया कि राज्य प्रविष्टि संख्या 49 (भूमि पर कर लगाने के सामान्य अधिकार) के तहत खनिज-गर्भा भूमि पर कर लगा सकते हैं।

राजकोषीय संघवाद और स्वायत्तता के पैरोकार इस तथ्य का खास तौर पर स्वागत करेंगे कि यह फैसला राज्यों के लिए नये कराधान का एक अहम रास्ता खोलता है। वे इस अदालती टिप्पणी का भी स्वागत करेंगे कि राज्यों की कराधान शक्तियों में किसी तरह की कमी से लोगों तक कल्याणकारी योजनाओं व सेवाओं को पहुंचाने की उनकी क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। हालांकि, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने, अपनी असहमति में, यह तर्क दिया है कि अगर अदालत ने केंद्रीय कानून को राज्यों की कराधान शक्तियों पर सीमा के रूप में मान्यता नहीं दी तो इसके अवांछित नतीजे होंगे, क्योंकि राज्य अतिरिक्त राजस्व जुटाने के लिए अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा में उतरेंगे, जिसके नतीजतन खनिजों की लागत में अनियमित और बेतरतीब उछाल आयेगा; और खनिजों के खरीदारों को बहुत ज्यादा भुगतान करना होगा, जिससे औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी होगी। इसके अलावा, राष्ट्रीय बाजार का इस्तेमाल मूल्यों में अंतर से पैसे बनाने के लिए किया जा सकता है। इन संभावित प्रभावों को देखते हुए, यह मुमकिन है कि राज्यों की कराधान शक्तियों पर स्पष्ट सीमा लागू करने या उन्हें खनिज अधिकारों पर कर लगाने से पूरी तरह रोकने के लिए केंद्र कानून में संशोधन की कोशिश करे। हालांकि, ऐसे किसी कदम से खनन गतिविधियां कर दायरे से पूरी तरह बाहर हो सकती हैं, क्योंकि जजों के बहुमत ने यह भी माना है कि संसद के पास खनिज अधिकारों पर कर लगाने की विधायी क्षमता नहीं है।

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