Live Classes
दो राज्यों द्वारा अपने राज्यपालों के आचरण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाए जाने के कदम ने एक बार फिर राजभवन में वैसे राजनीतिज्ञों की नियुक्ति से पैदा होने वाली समस्या को उजागर किया है जो निर्वाचित सरकारों के निर्णयों को कमजोर भले ही न करें, लेकिन उनके अमल में देरी करने के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु और केरल ने विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी पर सवाल उठाया है। तमिलनाडु कुछ दोषियों को सजा में छूट देने, कुछ पूर्व मंत्रियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी देने और राज्य लोक सेवा आयोगों में नियुक्तियों से संबंधित प्रस्तावों पर राज्यपाल द्वारा कार्रवाई नहीं किए जाने को लेकर भी व्यथित है। राज्यपालों को किसी भी निर्णय के मामले में रबर स्टाम्प बनने की जरुरत नहीं है, लेकिन उनके द्वारा, खासतौर पर केंद्र में सत्तारूढ़ दल द्वारा शासित नहीं होने वाले राज्यों में, गाहे-बगाहे निर्णयों और विधेयकों को रोके जाने के चलन पर सवाल उठना लाजिमी है। मसलन, कुछ राज्यपाल कुलपतियों की नियुक्ति की प्रक्रिया से कुलाधिपति, जो आम तौर पर राज्यपाल ही होते हैं, को बाहर रखने या वैसे नए विश्वविद्यालय की स्थापना जिनमें राज्यपाल कुलाधिपति न हों का प्रावधान करने वाले विश्वविद्यालय कानूनों से संबंधित संशोधनों के विचार के विरोधी जान पड़ते हैं। अधिकांश विश्वविद्यालयों में राज्यपालों को पदेन कुलपति बनाने का विचार महज एक परिपाटी है और यह उनके संस्थापक संविधियों के जरिए साकार होता है। हालांकि, राज्यपाल इस गलतफहमी के शिकार हैं कि कुलाधिपति बनना उनका अधिकार है और वे ऐसे किसी भी विधेयक पर सहमति देने में देरी करते हैं जो उनकी शक्ति को कम या खत्म करता हो। अब समय आ गया है कि केंद्र-राज्य संबंधों पर गठित न्यायमूर्ति एम.एम. पुंछी आयोग के सिफारिशों के अनुरूप राज्यपालों पर किसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति की भूमिका का बोझ डालने पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाया जाए।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सहमति देने की कोई समय-सीमा न होने का इस्तेमाल कुछ राज्यपालों द्वारा विधायिका द्वारा पारित कानूनों को बाधित करने के लिए किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि तेलंगाना सरकार की याचिका पर सुनवाई के दौरान संवैधानिक प्राधिकारियों को संविधान के अनुच्छेद 200 में वर्णित “जितनी जल्दी हो सके” वाले वाक्यांश में महत्वपूर्ण “संवैधानिक सामग्री” निहित होने की बात की याद दिलाने वाली सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने राज्यपालों के भीतर विधेयकों पर विचार करने में तत्परता बरतने की भावना पैदा की होगी। अदालत का आशय यह था कि राज्यपालों के लिए अपना निर्णय बताए बिना अनिश्चित काल तक विधेयकों को रोके रखना संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य होगा। राज्यों को भी, अपने निर्णयों के औचित्य पर सवालिया निशान लगाने की गुंजाइश छोड़े बिना निर्णय लेने के मामले में विवेकपूर्ण रवैया अपनाना चाहिए। तमिलनाडु लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति से पहले आवेदन मांगने और आवेदकों की सापेक्ष योग्यता का आकलन करने के लिए किसी निर्धारित प्रक्रिया का अभाव इसकी एक मिसाल है। बड़ी बात जो किसी को नहीं भूलनी चाहिए वह यह कि राज्यपालों के कामकाज को संविधान में ‘सहायता और सलाह’ की शर्त जरिए स्पष्ट रूप से सीमित किया गया है और उन्हें हासिल विवेकाधीन के प्रावधान का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।