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मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सिसी के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मुलाकात के दौरान भारत और मिस्र ने अपने संबंधों को उन्नत कर रणनीतिक साझेदारी तक ले जाने का फैसला किया। यह पश्चिम एशिया-उत्तर अफ्रीका (डब्ल्यूएएनए) क्षेत्र के साथ भारत के संबंधों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, जो इनके ऐतिहासिक संबंधों को देखते हुए बहुत दिनों से बकाया था। दोनों देशों ने 1955 में मैत्री संधि पर दस्तखत किए और मिस्र को भारत के समर्थन (जो 1956 में स्वेज नहर संकट के दौरान भी जारी रहा) का नतीजा अंतत: 1961 में गुट-निरपेक्ष आंदोलन के रूप में सामने आया, जिसमें दोनों देश संस्थापक सदस्य बने। जी-77 समूह और ‘दक्षिण-दक्षिण सहयोग’ जैसी पहलकदमियों में भी उनकी सबसे अहम भूमिका रही। शीतयुद्ध के दौरान, भारत और मिस्र अपनी इस इच्छा को लेकर एकजुट रहे कि वे न तो अमेरिका और न ही सोवियत संघ खेमे का अनुयायी बनेंगे। ज्यादा हाल की बात करें तो, यूक्रेन युद्ध को लेकर उनका नजरिया बिल्कुल एक जैसा रहा है – दोनों ने रूसी कार्रवाई की आलोचना करने से इनकार किया, लेकिन इसे अनदेखा भी नहीं किया और कूटनीतिक समाधान का आह्वान किया।
पिछले साल, भारत ने दुनिया के सबसे बड़े गेहूं आयातकों में शामिल मिस्र को गेहूं की आपूर्ति का फैसला किया, जिससे नई दिल्ली को काहिरा में काफी सद्भाव हासिल हुआ। पिछले साल ‘काला सागर अनाज पहल’ के अस्तित्व में आने से पहले, रूस और यूक्रेन से निर्यात ठप पड़ने की वजह से मिस्र को गेहूं की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित हुई थी। दोनों पक्ष कृषि, पुरातत्व विज्ञान एवं पुरावस्तुओं (एंटिक्विटीज), और प्रतिस्पर्धा कानून के क्षेत्र में समझौता ज्ञापन (एमओयू) के साथ, हरित ऊर्जा, दवा और रक्षा क्षेत्र में नजदीकी सहयोग कर रहे हैं। मोदी का अल-हकीम मस्जिद में जाना और मिस्र के सबसे बड़े मुफ्ती से मिलना, मुस्लिम दुनिया के प्रति अपनी सरकार की नीतियों के बारे में आशंकाएं दूर करने की कोशिश जैसा लगा।
इस साल भारत के गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि रहे राष्ट्रपति अल-सिसी ने मोदी को मिस्र के सर्वोच्च राजकीय सम्मान ‘द ऑर्डर ऑफ द नाइल’ से नवाजा। यह सम्मान विश्व नेताओं और उन लोगों को दिया जाता है ‘Download pdf to Read More