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संपादकीय

जनसंख्या संबंधी प्राथमिकताएं

05.02.24 353 Source: The Hindu (03 February 2024)
जनसंख्या संबंधी प्राथमिकताएं

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने अपने अंतरिम बजट भाषण में एक दिलचस्प वक्तव्य देते हुए कहा कि “तेजी से बढ़ती जनसंख्या और जनसांख्यिकीय बदलावों” से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों पर विचार करने के लिए एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया जाएगा। केंद्र सरकार द्वारा बार-बार दशकीय जनगणना को स्थगित किए जाने की पृष्ठभूमि में इस कथन के समर्थन में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यह 1881 के बाद पहली मर्तबा है जब किसी दशक में जनगणना नहीं कराया गया है। यह स्पष्ट है कि भारत अब सबसे अधिक आबादी वाला देश है, लेकिन 2020 में नमूना पंजीकरण प्रणाली सांख्यिकीय रिपोर्ट और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -5 (2019-21) से यह पता चलता है कि भारत में कुल प्रजनन दर (टीएफआर) गिरकर 2 हो गई है। कुल मिलाकर, सिर्फ कुछ राज्यों - बिहार (2.98), मेघालय (2.91), उत्तर प्रदेश (2.35), झारखंड (2.26) और मणिपुर (2.17) - का टीएफआर 2.1 से ऊपर है। साफ है कि, 20वीं शताब्दी में देखी गई उच्च जनसंख्या वृद्धि पर काफी हद तक लगाम लगा दिया गया है - टीएफआर 1950 में 5.7 से गिरकर 2020 में 2 हो गया है, हालांकि विभिन्न क्षेत्रों में यह आंकड़ा अलग-अलग है। दक्षिण के राज्यों की जनसंख्या में हिस्सेदारी 1951 में 26 फीसदी से घटकर 2011 में 21 फीसदी हो गई है, जो मुख्य रूप से बेहतर सामाजिक-आर्थिक परिणामों और शिक्षा की वजह से टीएफआर में तेजी से आई कमी का नतीजा है और यह स्थिति इन राज्यों में उच्च प्रवासन दर के बावजूद है। भले ही उल्लिखित सर्वेक्षण ठोस और जरुरी हैं, फिर भी वे व्यापक जनगणना का विकल्प नहीं हैं। जनगणना कराने में हो निरंतर देरी केंद्रीय गृह मंत्रालय की खराब स्थिति को दर्शाती है, जो भारतीय शासन के एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम को क्रियान्वित करने के बजाय अन्य प्राथमिकताओं से प्रेरित है।


भारत में जनसांख्यिकीय बदलाव और बढ़ती जीवन प्रत्याशा के चलते कई चुनौतियां और अवसर सामने आए हैं। बहुप्रचारित जनसांख्यिकीय लाभांश - विकासशील देशों में कामकाजी उम्र की आबादी का अपेक्षाकृत उच्च अनुपात - सिर्फ तभी सार्थक है जब पर्याप्त नौकरियां हों और लोग कुछ हद तक उन सामाजिक सुरक्षाओं का लाभ उठा पायें, जो उम्र बढ़ने पर उनके लिए मददगार साबित होंगी। उच्च बेरोजगारी और उत्पादकता में वृद्धि करने वाली व कुशल रोजगार की जरूरतों को पूरा करने वाली गैर-कृषि नौकरियों के सृजन के पिछले कुछ सालों में अपेक्षाकृत सुस्त होने की वजह से देश में इस लाभांश के जाया चले जाने की संभावना है। अगर यह “उच्चाधिकार प्राप्त” समिति नौकरियों और सामाजिक सुरक्षा से जुड़े सवालों तथा तेजी से हो रहे शहरीकरण व काम के मशीनीकरण के चलते नागरिकों के सामने आने वाली चुनौतियों का हल निकालने में सार्थक रूप से संलग्न होती है, तो वह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। लेकिन अगर यह समिति जनसंख्या के मसले को धर्म और आप्रवासन के चश्मे से देखने की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की पसंदीदा विचारधारा पर ध्यान केंद्रित करती है, तो वह सिर्फ देश में तेजी से घटते लोकतांत्रिक लाभांश का सदुपयोग करने से शासन को भटकाएगी।

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